क्या बिहार अब जोखिम लेने को तैयार है?
कल का दिन बिहार के लिए सिर्फ एक चुनावी तारीख नहीं, बल्कि आत्ममंथन का क्षण है। यह वह दिन होगा जब लाखों मतदाता यह तय करेंगे कि वे स्थायित्व के नाम पर जड़ता को स्वीकार करेंगे या फिर परिवर्तन के नाम पर अनिश्चितता का आलिंगन करेंगे। दो दशकों से बिहार की राजनीति एक ही धुरी पर घूमती रही है। मुख्यमंत्री कुर्सी पर बैठा चेहरा वही है, नीतियां लगभग वही हैं, और जनता की उम्मीदें हर बार चुनावी रैलियों में फिर से जगाई जाती हैं, मानो सपनों को बस थोड़ी देर और स्थगित कर देना ही नियति हो।
बिहार की जनता मेहनती है। यह बात किसी प्रमाण की मोहताज नहीं। पर सवाल यह है कि क्या केवल मेहनत से परिवर्तन आता है, या उसके लिए थोड़ा जोखिम उठाना भी जरूरी होता है। पिछले बीस वर्षों में राज्य ने स्थायित्व देखा है, लेकिन क्या इस स्थायित्व ने विकास की नई राहें खोली हैं या बस ठहराव की आदत डाल दी है?
यह चुनाव केवल नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के बीच की प्रतिस्पर्धा नहीं है। यह उस मानसिकता का टकराव है जो सरकारी नौकरी की सुरक्षा को जीवन का अंतिम लक्ष्य मानती है, बनाम उस नई सोच का जो जोखिम उठाकर कुछ नया करने का साहस रखती है। एक ओर वह रास्ता है जहाँ सुरक्षा है, पर सीमित संभावना। वहीं दूसरी ओर वह पथ है जहाँ अनिश्चितता है, पर असीम अवसर।
नीतीश कुमार के समर्थक कहते हैं कि उन्होंने बिहार को अराजकता से स्थायित्व की ओर लाया। यह सच भी है। पर वही स्थायित्व अब कब तक विकास का पर्याय रहेगा? क्या यह स्थायित्व अब स्थगन नहीं बन गया है? दूसरी ओर, तेजस्वी यादव पहली बार मुख्यमंत्री बन सकते हैं — यह प्रयोग सफल भी हो सकता है और शायद असफल भी। पर कम से कम यह प्रयोग तो होगा। और यही प्रयोग भविष्य के लिए राह बना सकता है।
बिहार के युवा आज एक दोराहे पर हैं। एक ओर पुराना रास्ता है — जहाँ “जो है, वही ठीक है” की मानसिकता है। दूसरी ओर नया रास्ता है — जहाँ जोखिम है, पर बदलाव की संभावना भी। यही जोखिम जीवन की असली ऊर्जा है। शायद बिहार को अब यह समझना होगा कि सपने देखने के लिए भी साहस चाहिए, और सपनों को सच करने के लिए जोखिम उठाना अनिवार्य है।
कल जब स्ट्रांग रूम के ताले खुलेंगे, तो वहां सिर्फ वोटों की गिनती नहीं होगी। यह उस मानसिकता की गिनती होगी जो अब तक सुरक्षा के खोल में छिपी रही है। यह तय करेगा कि क्या बिहार अब भी भय और संदेह के साये में स्थायित्व को ही सबसे बड़ा मूल्य मानता है, या फिर वह उस साहसिक रास्ते पर कदम रखेगा जहाँ जोखिम तो है, पर उम्मीद भी उतनी ही चमकदार है। डर की राजनीति हमेशा यह कहती है कि परिवर्तन में खतरा है; पर इतिहास गवाह है कि बिना खतरा उठाए कोई समाज आगे नहीं बढ़ता।
शायद बिहार को अब यह समझना होगा कि सच्चा विकास डर से नहीं, भरोसे से जन्म लेता है — भरोसा अपने श्रम पर, अपनी क्षमता पर और अपने भविष्य पर। स्थायित्व जरूरी है, पर अगर वही स्थायित्व सपनों को बाँधने लगे, तो उसे तोड़ना ही सबसे बड़ा साहस बन जाता है।
(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं।)
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