मानव स्वभाव और कर्म का मूल्य: एक आत्मचिंतन
मानव स्वभाव और कर्म का मूल्य: एक आत्मचिंतन मनुष्य एक ऐसा जीव है जो निरंतर परिवर्तनशील है। उसकी चेतना, उसकी प्रवृत्तियाँ, उसकी वासनाएँ और उसकी विवेकशीलता उसे अन्य प्राणियों से पृथक करती हैं। आज जब हम समाज के विविध पहलुओं पर दृष्टिपात करते हैं तो यह अनुभव होता है कि नैतिकता, श्रम और कर्तव्यनिष्ठा की परिभाषाएँ धीरे धीरे बदलती जा रही हैं। आधुनिकता के नाम पर न केवल बाहरी जीवनशैली बदली है, अपितु हमारे आन्तरिक मूल्य और सोचने के तरीके भी एक भिन्न दिशा में अग्रसर हो रहे हैं। प्राचीन भारतीय दर्शन में कर्म को सर्वोच्च माना गया है। भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट रूप से कहा है कि मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने में है, फल की इच्छा में नहीं। किंतु आज का युग वह है जिसमें मनुष्य कर्म से अधिक फल की चिंता करता है। यही कारण है कि जीवन की सहजता खोती जा रही है। मैंने अपने विश्वविद्यालय में एक प्राध्यापक को पढ़ाते देखा है जो शुद्ध भौतिकी में पारंगत थे। वह अपने डेढ़ घंटे की कक्षा में पाँच मिनट का एक अल्प विराम लेते थे ताकि वे बाहर जाकर सिगरेट पी सकें। परन्तु उनकी शिक्षण शैली इतनी उत्कृष्ट थी कि छात्...